आज रिफ्रैक्टिव सर्जन मरीजों की अद्ïभूत जरूरतों को दर्जी की भांति निकाले गए समाधनों को उपलब्ध कराने में सक्ष्म है। इसी तरह,यह रिफ्रैक्टिव सर्जन के हिस्से पर पड़ते दायित्व में वृद्घि को दर्शाता है और इन नई प्रक्रियाओं के लिए मास्टर तकनीकें व जरूरी यंत्रों को प्राप्त करने के लिए रिफ्रैक्टिव सर्जरी केंद्रों के लिए बहुत प्रचलित है। अब सीमित विकल्पों वाले दिन चले गए जब सभी मरीज प्रचलित रिफ्रैक्टिव प्रकिया के लिए चुने जाते थे। अब ‘टोटल रिफ्रैक्टिव सोल्यूशन’ का युग आ गया है। व्यक्ति की आंखों की आकृति या आकार में परिवर्तन आने पर वह विभिन्न रिफ्रैक्टिव त्रुटियों से ग्रस्त हो सकता है जैसेे: मायोपिया (नियर साइटिडनेस),हाईपरमेट्रोपिया (फार साइटिडनेस), एस्गिमैटिस्म (इस में बेलनाकार पॉवर लेंसों की जरूरत होती है)और प्रेसबायोपिया(इस में पढ़ते समय चश्में की जरूरत पड़ती है)। आज रिफ्रैक्टिव त्रुटियों का इलाज करने के लिए चश्मों से लेकर आधुनिक लेंसों तक और अतिरिक्त आधुनिक रिफ्रैक्टिव सर्जरियां उपलब्ध है अब विभिन्न प्रक्रियाएं कोर्निया पर आधारित या लेंस पर आधारित मौजूद है। आधुनिक अनुसंधानों व खोजों के परिणामस्वरूप बहुत बेहतर विकल्पों के साथ रिफ्रैक्टिव सर्जरी के लिए नए लेंस डिजाइन किए हैं जो कि अपनी भिन्न-भिन्न प्रकार से भूमिकाएं निभाते हैं। कुछ नई प्रक्रियाएॅं निम्र हैं-
लासिक:-यह प्रक्रिया आधुनिक शुद्घता के साथ कंप्यूटर तकनीकी कला का मिश्रण है। पहली लेजर प्रक्रिया में कोर्निया की सतह का उपचार करने के दौरान, लासिक कोर्निया के तंतु को ठीक करती है और इस प्रकार इसे पुन:रूपित किया जाता है जिस से कि रिफ्रैक्टिव त्रुटि कम हो जाती है। इस प्रक्रिया में एक यंत्र जिसे माइक्रोकेराटोन कहा जाता है के साथ कोर्निया के पतले फ्लैप की रचना शामिल है। फ्लैप जो कि एक तरफ से जुड़ा होता है बाद में फिर से मोड़ दिया जाता है। आखिरकार लेजर द्वारा चीरफाड़ करके शरीर के बेकार भाग को अलग करने के बाद,कोर्निएल फ्लैप अपनी वास्तविक अवस्था में वापस लौट आता है। जहां यह एकदम से मुड़ जाता है। कोर्निया की अत्यधिक प्राकृतिक विशेषताएं होने के कारण किसी प्रकार के चीरे व टांकों की जरूरत नहीं होती। यहां तक कि आंख में पट्ïटी बांधने की भी जरूरत नहीं होती।
पी आर के :-कोर्र्निया पर कोशिकाओं की बाहरी परत निकाल दी जाती है और फिर लेजर कोर्निया को पुन:रूपित कर देता है। कोशिकाएं जल्दी से पुन:उत्पादित हो जाती है और उपचारिक क्षेत्र को ढक देती है।
ई पी आई लासिक:-इसमें केवल कोर्निया के अंदर से विशेष यांत्रिक यंत्रों के साथ और लेजर स्कल्पचिंग के बाद उपचारित क्षेत्र को पुन:स्थिति से कोशिकाओं की बाहरी परत अलग कर देती है.इस प्रक्रिया में पी आर के की तुलना में अधिक लाभ है।
फैकिक इंट्राओक्यूलर लेंस:-एक विभिन्न प्रकार की प्रक्रिया है जो फैकिक आई ओ एल के नाम से जानी जाती है यह उन मरीजों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिन के लिए लासिक या अन्य एक्जाइमर लेजर प्रक्रिया एक बेहतर विकल्प नहीं होता। फैकिक आई ओ एल आंखों के अंदर प्रत्यारोपित किए जाते हैं।
रिफ्रैक्टिव लेंस एक्सचेंज:-आंखों में से प्राकृतिक लेंस निकाल लिए जाते हैं और सही दृष्टिï के लिए कृत्रिम मल्टीफोक्ल इंट्राओक्यूलर लेंसों को प्रत्यारोपित कर दिया जाता है।
समाधान:-
रिफ्रैक्टिव प्रक्रियाओं के लिए लेजर प्रक्रियाएं तो शुरू हो गई है लेकिन लेंसों पर आधारित प्रक्रियाएं भी भविष्य में जल्द ही अपना प्रभाव जमा लेगी। यदि एक प्रक्रि या मरीज के लिए पर्याप्त नहीं है, तो इस के बाद डाक्टर दो प्रक्रियाओं के मिश्रण का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसे ‘बायोप्टिक्स’ का केस कहा जाता है। यह सब भविष्यवाणियां उन मरीजों के लिए बहुत अच्छी है जो इस में उपलब्ध योग्यताओं से तुरंत लाभ पाना चाहते हैं। इसी प्रकार मरीजों में अपनी तरफ से भी कुछ जिम्मेदारियां होती हैं। उन्हें रिफ्रैक्टिव सर्जरी के क्षेत्र में होने वाले विकासों के प्रति पूर्ण जागरूकता रखनी चाहिए। इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है उन्हें एक सही सर्जन और रिफ्रैक्टिव सर्जरी केंद्र का सावधानीपूर्वक चुनाव करना। उमेश कुमार सिंह