बापू, महात्मा गांधी, गांधीजी यानी मोहनदास करमचंद गांधी. उनकी जयंती पर आज पूरा राष्ट्र उन्हें याद कर रहा है. गांधीजी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था. उन्होंने पूरा जीवन लोगों को अहिंसा का पाठ पढ़ाया. अंग्रेजों को भी उनके सामने झुकना पड़ा. देश आजाद हो चुका था. भारत के लोग खुश थे. देश में लोकतंत्र का परचम लहराने लगा था. लेकिन ये खुशी उस वक्त राष्ट्रीय शोक में बदल गई, जब 30 जनवरी 1948 को नई दिल्ली के बिड़ला भवन में गांधीजी की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. जो भारत के इतिहास में एक दुखद अध्याय बन कर रह गया.
गान्धी-हत्या की पृष्ठभूमि
भारत-विभाजन
१९४७ में भारत का विभाजन और विभाजन के समय हुई साम्प्रदायिक हिंसा ने नाथूराम को अत्यन्त उद्वेलित कर दिया। तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए बीसवीं सदी की उस सबसे बडी त्रासदी के लिये मोहनदास करमचन्द गान्धी ही सर्वाधिक उत्तरदायी समझ में आये। और ऐसा नहीं होने दिया
विभाजन के समय हुए निर्णय के अनुसार भारत द्वारा पकिस्तान को ७५ करोड़ रुपये देने थे, जिसमें से २० करोड़ दिए जा चुके थे। उसी समय पाकिस्तान ने भारत के कश्मीर प्रान्त पर आक्रमण कर दिया जिसके कारण भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में भारत सरकार ने पाकिस्तान को ५५ करोड़ रुपये न देने का निर्णय किया, परन्तु भारत सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध गांधी अनशन पर बैठ गये। गांधी के इस निर्णय से क्षुब्ध नाथूराम गोडसे और उनके कुछ साथियों ने महात्मा गांधी की हत्या करने का निर्णय लिया।
३० जनवरी १९४८ को नाथूराम गोडसे दिल्ली के बिड़ला भवन में प्रार्थना-सभा के समय से ४० मिनट पहले पहुँच गये। जैसे ही गान्धी जी प्रार्थना-सभा के लिये परिसर में दाखिल हुए, नाथूराम ने पहले उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया उसके बाद बिना कोई बिलम्ब किये अपनी पिस्तौल से तीन गोलियाँ मार कर गान्धी का अन्त कर दिया। गोडसे ने उसके बाद भागने का कोई प्रयास नहीं किया।
पहले भी हुई थी हत्या की कोशिश
बता दें, ३० जनवरी १९४८ से पहले भी नाथूराम गोडसे ने बापू की हत्या के लिए मई १९३४ और सितंबर १९४४ में भी नाकाम कोशिश की थी. अपनी साजिश में नाकाम होने पर वह अपने दोस्त नारायण आप्टे के साथ वापस मुंबई चला गया. इन दोनों ने दत्तात्रय परचुरे और गंगाधर दंडवते के साथ मिलकर बैरेटा नामक पिस्टल खरीदी. २९ जनवरी १९४८ को वापस दोनों फिर दिल्ली पहुंचे और रेलवे स्टेशन के रिटायरिंग रूम नंबर ६ में ठहरे थे.
गांधीजी की हत्या के बाद इस मुकदमे में नाथूराम गोडसे समेत 8 लोगों को आरोपी बनाया गया था. जिसमें से दिगम्बर बड़गे को सरकारी गवाह बनने के कारण बरी कर दिया गया. वहीं शंकर किस्तैया को उच्च न्यायालय से माफी मिल गई. जबकि वीर सावरकर के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलने की वजह से बरी कर दिया गया. बाकी बचे 5 अभियुक्तों में से गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास हुआ था. जबकि नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को 15 नवंबर 1949 को फांसी पर लटका दिया गया.