अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास के बाद अब कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र के दो अहम मुद्दे पूरे कर लिए हैं. पहला-जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाना और दूसरा-राम मंदिर के निर्माण की राह प्रशस्त करना.
राम मंदिर के शिलान्यास के अगले ही दिन सोशल मीडिया पर लोगों ने बीजेपी का ध्यान तीसरे वादे, यानी समान नागरिक संहिता यानी ‘यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड’ लागू करने की तरफ़ खींचा.
इसको लेकर सुबह से ही लोगों ने ट्वीट करने शुरू कर दिए. इनमें से सबसे ज़्यादा ग़ौर करने वाला ट्वीट पत्रकार शाहिद सिद्दीक़ी का था जिन्होंने समान नागरिक संहिता के लागू होने की तारीख़ का भी अंदाज़ा लगा लिया और लिखा कि ये काम भी सरकार पांच अगस्त 2021 तक पूरा कर देगी.
भारत में यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को लेकर बहस आज़ादी के ज़माने से ही चल रही है.
भारत के संविधान के निर्माताओं ने सुझाव दिया था कि सभी नागरिकों के लिए एक ही तरह का क़ानून रहना चाहिए ताकि इसके तहत उनके विवाह, तलाक़, संपत्ति-विरासत का उत्तराधिकार और गोद लेने के अधिकार को लाया जा सके.
हर धर्म के लिए समान क़ानून की बहस
इस पेशकश को ‘डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी’ यानी राज्य के नीति निदेशक तत्वों में रखा गया. फिर भी संविधान निर्माताओं को लगा था कि देश में समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए.
क़ानून के जानकार कहते हैं भारत में समाजिक विविधता देखकर अंग्रेज़ शासक भी हैरान थे. वो इस बात पर भी हैरान थे कि चाहे वो हिन्दू हों या मुसलमान, पारसी हों या ईसाई, सभी के अपने अलग क़ायदे क़ानून हैं.
इसी वजह से तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत ने धार्मिक मामलों का निपटारा भी उन्हीं समाजों के परंपरागत क़ानूनों के आधार पर ही करना शुरू कर दिया.
जानकार कहते हैं कि इस दौरान राजा राममोहन रॉय से लेकर कई समाजसेवियों ने हिंदू समाज के अंदर बदलाव लाने का काम किया जिसमें सती प्रथा और बाल विवाह जैसे प्रावधानों को ख़त्म करने की मुहिम चलाई गयी.
आज़ादी के बाद भारत में बनी पहली सरकार ‘हिंदू कोड बिल’ लेकर आई जिसका उद्देश्य बताया गया कि ये हिंदू समाज की महिलाओं को उन पर लगी बेड़ियों से मुक्ति दिलाने काम करेगा. मगर हिंदू कोड बिल को संसद में ज़ोरदार विरोध का सामना करना पड़ा.
विरोध कर रहे सांसदों का तर्क था कि जनता के चुने गए प्रतिनिधि ही इस पर निर्णय ले सकेंगे क्योंकि यह बहुसंख्यक हिंदू समाज के अधिकारों का मामला है.
कुछ लोगों की नाराज़गी थी कि नेहरू की सरकार सिर्फ़ हिंदुओं को ही इससे बाँधना चाहती है, जबकि दूसरे धर्मों के अनुयायी अपनी पारम्परिक रीतियों के हिसाब से चल सकते हैं.
हिंदू कोड बिल पारित तो नहीं हो पाया मगर 1952 में हिन्दुओं की शादी और दूसरे मामलों पर अलग-अलग कोड बनाए गए.
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