हिंदी सिनेमा में नायकों के साथ खलनायकों का भी वर्चस्व हमेशा रहा है। कई बार इनकी छवि और इनका मेहनताना नायकों के समकक्ष या उससे भी ज्यादा रहा है। के.एन. सिंह, प्राण, अजीत, प्रेम चोपड़ा, रंजीत, अमजद खान, अमरीश पुरी और गुलशन ग्रोवर तक एक लंबी लिस्ट है। सभी खलनायकों की अपनी-अपनी विशेषताएं थी और अपनी अलग पहचान भी। खलनायक अजीत ने अपने ठहरे हुए बुलंद संवादों, राजसी ठाठबाट, शानदार वेशभूषा और सिगार के सहारे अपनी अलग पहचान बनाई। फिल्म सूरज से शुरू हुआ उनका यह दूसरा सफर फिल्म जुगनू, यादों की बरात, जंजीर, चरस से होते हुए कालीचरण में एक संपूर्णता और सर्वोच्चता प्राप्त करता है। उनकी अपने संवादों से बनी विशेष पहचान आज तक “अजीत जोक्स” के नाम से ज़िंदा है।
हैदराबाद के रहने वाले अजीत का मूल नाम हामिद अली ख़ान था। फिल्मों में नायक बनने आए अजीत 20 साल तक फिल्मों में नायक, सहनायक और अन्य भूमिकाएं करते रहे। काम कम होने पर उन्होंने राजेंद्र कुमार के कहने पर फिल्म सूरज में खलनायक का रोल किया और इस तरह प्राण की तरह ही उनकी दूसरी बेहतर और लंबी पारी की धमाकेदार शुरुआत हुई। उनका पूरा जीवन बहुत सीधा और कठोर अनुशासन के चलते काबिले तारीफ था। अंत में वे स्वयं अपने वतन हैदराबाद चले गए थे और अंत समय तक वहीं रहे। उनके बारे में कई अनकही और रोचक जानकारियां हाल ही में उन पर आई एक पुस्तक “अजीत का सफर सारा शहर मुझे…” से प्राप्त होती हैं जिसे वरिष्ठ पत्रकार इक़बाल रिज़व ने लिखा है और इसे वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।
अजीत का जन्म 27 जनवरी 1922 को हुआ था। उनके पूर्वज अफगानिस्तान के कंधार से उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में आकर बस गए थे। अजीत के दादाजी यहीं से हैदराबाद निजाम की सेवा में गए इसलिए उनका जन्म और शिक्षा दीक्षा हैदराबाद में ही हुई। पढ़ाई लिखाई में तो वे औसत थे किंतु फुटबॉल वह बहुत अच्छा खेलते थे। पढ़ाई के दौरान ही स्कूल के नाटकों में भाग लेने लगे थे। सिनेमा में भी उनकी दिलचस्पी अपने मामू के कारण बनी क्योंकि कई सिनेमाघरों में उनकी कैंटीन थी। इस कारण वे बहुत सी फिल्में मुफ़्त में देख पाते थे। अपने एक टीचर की सलाह पर उन्होंने अपने करियर के लिए सेना या सिनेमा में से सिनेमा को चुना और बॉम्बे (अब मुंबई) पहुंच गए। चार साल तक बंबई में उन्होंने खूब स्ट्रगल किया। एक्स्ट्रा से लेकर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने तक और वॉइसओवर यानी कमेंट्री तक।
इसी बीच उन्हें प्रख्यात अभिनेता मजहर खान ने अपनी फिल्म बड़ी बात (1944) में टीचर का एक छोटा सा रोल दिया। शाहे मिस्र (1946) में गीता बोस के साथ नायक का रोल मिला जिसके निर्देशक थे गोविंद राम सेठी। उसके बाद उनकी जन्मपत्री, हातिमताई, जीवन साथी और आपबीती जैसी फ़िल्में आई और सफर चल पड़ा। चार साल तक वह फिल्मों में हामिद अली खान थे, लेकिन फिल्म बेकसूर के डायरेक्टर के. अमरनाथ ने उन्हें एक छोटा नाम अजीत रखने की सलाह दी जिसे उन्होंने मान लिया गया और इस तरह हामिद अली खान, अजीत हो गए। अपने समय में उन्होंने नर्गिस और नूतन को छोड़कर सभी प्रमुख अभिनेत्रियों के साथ रोल किए। अपने कैरियर के इस पहले पड़ाव में उन्होंने नायक के तौर पर अस्सी फिल्में की। नायक के रूप में उनकी अंतिम फिल्म थी- पैनिक इन बगदाद (1966)। अब तक उन्हें फिल्मों में हीरो के रोल मिलना कम हो गए थे।
राजेंद्र कुमार की सलाह पर उन्होंने सूरज फिल्म में खलनायक बनने के लिए हामी भर दी और फिर तो चमत्कार हो गया… अपनी दूसरी पारी में उन्होंने खलनायक के रूप में बेहद लोकप्रियता हासिल की। जंजीर का सेठ धर्मदयाल तेजा, यादों की बारात का शाकाल और कालीचरण का लॉयन। “सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है” यह संवाद तो लोगों की जुबान पर ऐसा चढ़ा कि आज तक नहीं उतरा। उनकी “मोना डार्लिंग” को भी कौन भूल सकता है। कहानी किस्मत की, जीवन मृत्यु और वारंट फिल्मों के नेगेटिव रोल ने उन्हें लार्जर देन लाइफ बना दिया। अजीत को शायरी का शौक था। जंगल में जाकर शिकार भी करते थे। उनकी पहली शादी एक फ्रांसीसी कन्या ग्वेन डी मोंट से हुई थी जो पांच साल तक चली। अजीत की अंतिम दो फिल्में थीं- महेश भट्ट की क्रिमिनल और देवानंद की गैंगस्टर जो 1995 में प्रदर्शित हुई। 21 अक्टूबर 1998 को वे हमारे बीच नहीं रहे।
चलते चलते
किताबें बेचकर और मां से कुछ पैसे लेकर 26 जून 1943 को मुंबई (तब बंबई) पहुंचे हामिद अली ख़ान ने विक्टोरिया टर्मिनल के पास ही क्राफर्ड मार्केट में स्थित हैदराबाद गेस्ट हाउस में पांच रुपए महीने पर कमरा लिया, लेकिन यहां एक मुश्किल थी। उनके कमरे के पास ही कुछ गुंडे रात को जुआ खेला करते थे और इस दौरान होने वाली बहस, लड़ाई के चक्कर में उनकी नींद टूट जाती थी। एक रात अचानक शोर सुनकर अजीत की नींद खुली तो पता चला कि पुलिस ने जुआरियों को पकड़ने के लिए छापा मारा है और इस अफरातफरी में जान बचाने के लिए कुछ जुआरी उनके कमरे में भी घुस आए। उनके साथ पुलिस उन्हें भी पकड़ कर प्रिंसेस स्ट्रीट के थाने में ले गई और लॉकअप में बंद कर दिया गया। उस दिन शनिवार था और अगले दिन रविवार, इसलिए सोमवार तक तो उन्हें जेल में रहना ही होगा, यह सोचकर हामिद की आंखों में आंसू आ गए। ड्यूटी इंस्पेक्टर ने रोने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वह बड़े घर के आदमी हैं और यहां फिल्मों में काम के लिए आए हैं। इंस्पेक्टर को हामिद की बातों में सच्चाई नजर आई और उन्होंने उनको अपराधियों की शिनाख्त करवाकर छोड़ दिया। मजेदार बात यह हुई कि अगले दिन बाजार में उन जुआरियों ने उन्हें घेर लिया फिर तो उन्होंने उसी थाने में पहुंचकर अपनी जान बचाई।